अगर न्यूयॉर्क की तुलना करनी हो तो भारत के किसी शहर से करना अनुचित होगा. अमेरिका पिछले दो सौ वर्षों से जिस प्रक्रिया से निकला है, वह हमारे यहां सिर्फ पिछले दस वर्षों में शुरू हुई है. और इन दस वर्षों में हमने जो गति और दिशा पकड़ी है वह प्रशंसनीय है लेकिन वह दूरी तय नहीं हुई है जो हमारा लक्ष्य है.
न्यूयॉर्क की उपलब्धि को समझना है तो उसके लिए सही मानक लंदन या पेरिस जैसे शहर हैं जो तब ऑलरेडी दुनिया के सबसे सम्पन्न और विकसित शहर थे और वैश्विक शक्तियों के केंद्र थे जब न्यूयॉर्क एक बसता हुआ गांव था. जब 1900 के आसपास ब्रुकलिन ब्रिज बन रहा था तो वह पूरे शहर की स्काईलाइन को डोमिनेट करता था. हां, बिल्डिंग नहीं, ब्रिज. 1911 में बनी दुनिया की सबसे ऊंची बिल्डिंग वूलवर्थ बिल्डिंग पचास मंजिला थी और एक अजूबा गिनी जाती थी. आज जब आप वॉल स्ट्रीट में चलते हैं तो आपको वह बिल्डिंग खोजनी पड़ती है.
लेकिन आप इसकी तुलना लंदन से करेंगे तो लंदन एक गांव लगता है. 2000 के पहले लंदन की बहुमंजिला बिल्डिंग्स के नामपर चार बैंक्स की बिल्डिंग थीं कैनरी व्हार्फ में. सेंट्रल लंदन में सबसे इंप्रेसिव बिल्डिंग्स तब भी वेस्टमिंस्टर, बिग बेन और सेंट पॉल कैथेड्रल थी…कुछ सदी पुरानी. आज लंदन के पास शार्ड है, लेकिन यह एक ऐसी बिल्डिंग है जो शहर के चरित्र से अलग है…लगता है किसी ने अमेरिका से कॉम्प्लेक्स में बनाई है कि हम भी ऊंची बिल्डिंग बना सकते हैं.
ऊंची बिल्डिंग्स बनाना कोई कॉम्पेटिटिव स्पोर्ट्स नहीं है. आप ऊंची बिल्डिंग तब बनाते हो जब आपको इसकी जरूरत होती है. जब शहर में इतनी इकोनॉमिक एक्टिविटी होती है कि शहर उनको अफोर्ड कर सकता है..जिनके लिए कमर्शियल स्पेस चाहिए होता है. लंदन या पेरिस की इकोनॉमिक एक्टिविटी ही उतनी नहीं है कि यहां वैसी बिल्डिंग्स बनें.
और इकोनॉमिक एक्टिविटी होगी कहां से? इकोनॉमिक एक्टिविटी इकोनॉमिक फ्रीडम का परिणाम है. और वह इंग्लैंड अपने नागरिकों को देने से रहा. यहां का एलिट क्लास दुष्ट है और सामान्य पढ़ा लिखा क्लास मूर्ख है. दोनों ने मिलकर यहां के वर्किंग क्लास को आलसी बना रखा है. वह चाहता है कि लोग गरीब रहें, सरकार पर आश्रित रहें और समाज में उनका रिलेटिव प्राइम पोजीशन बना रहे. अमेरिका में गुजरते हुए पहली फीलिंग आई कि अमेरिका काम पर है… सुबह से लोग काम कर रहे हैं, देर रात तक काम कर रहे हैं. अब भी 6th एवेन्यू में एक स्काईस्क्रेपर बन रहा है, बित्ता भर जमीन पर.. और रात भर काम चल रहा है. जबकि इंग्लैंड में आकर यह फीलिंग आती है कि देश वेलफेयर पर है. जो काम पर हैं उनकी भी यह भाव भंगिमा है जैसे कि वेलफेयर पर हों.
मैं अपने बेटे को कुछ समय से कह रहा हूं कि इंग्लैंड से निकलो. अगर तुमने यहां अधिक दिन काम कर लिया ना तो आदतें हो जाएंगी खराब. फिर तुम एक कॉम्पेटिटीव माहौल में काम करने लायक नहीं रहोगे. तो जल्दी से निकलो…यह जहाज डूब रहा है. उसे मैं कहता हूं कि टिकट मैं देता हूं, जाओ अमेरिका को टटोल कर आओ… संभावनाएं तलाश कर देखो..
आज मैंने उसको वर्ल्ड ट्रेड सेंटर के टॉप फ्लोर से वीडियो कॉल लगाया.. मैनहट्टन को देखो. इसे देख कर ही लगता है कि इस शहर के पास एक एंबीशन है. यह ऊपर उठना चाहता है, आकाश चूमना चाहता है. और इंग्लैंड वह जगह है जहां एंबीशंस खुदकुशी करने जाती हैं.. (क्रमशः)

डॉ राजीव मिश्रा यूँ तो पेशे से चिकित्सक हैं पर शौकिया लेखन से किशोरावस्था से ही जुड़े हैं. इन्होंने भारतीय सेना की मेडिकल कोर में भी सेवाएँ दी हैं और मेजर के पद से सेवानिवृत हुए. साथ ही जमशेदपुर में अनेक समाजसेवी संस्थाओं से जुड़े रहे. उन्होंने चिकित्सा के अलावा साहित्य, राजनीति और इतिहास के अध्ययन में अपनी रुचि बनाई रखी और सोशल मीडिया के आगमन ने उनकी सृजनात्मकता को नई दिशा दी. अपनी विचार यात्रा में उन्होंने वामपंथ से शुरुआत करके गाँधीवाद और फिर राष्ट्रवाद तक की दूरी तय की है, और सोशल मीडिया में राष्ट्रवादी लेखकों के बीच एक परिचित नाम हैं. “विषैला वामपंथ” लेखक की पहली प्रकाशित कृति है. वर्तमान में लेखक यू.के में नेशनल हेल्थ सर्विसेज में चिकित्सक के रूप में कार्यरत हैं.